सभी कृष्ण-भक्तों को मेरा नमन
श्रद्धेय श्रीकृष्ण भक्त,
जय श्रीकृष्ण,
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से प्रकटी सुपावन गीता के उक्त शब्दों का भाव यह है कि जब जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है और पाप बढ़ता है तब तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में धर्म की पुनः स्थापना के लिये अवतार लेते हैं। इसी कड़ी में त्रेता युग में भगवान विष्णु के सातवें अवतार के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने अयोध्या के चक्रवर्ती महाराज दशरथ के घर माता कौशल्या की कोख से जन्म लिया।
जब जब बढे़ पाप की धारा
तब तब धरके विविध सरीरा जब जब बढे़ पाप की धारा
तब तब धरके विविध सरीरा
सरल विरचित रामायण, बालकाण्ड ।। 2.1-2.2।।
प्रभु श्रीराम ने असुरों का संहार करके पुनः धर्म की स्थापना की। कालान्तर में द्वापर युग आया। धरती पर पाप एवं अत्याचार पुनः बढ़ गया। परिणाम स्वरूप भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में लीलाधारी योगेश्वर जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने मथुरा के कारावास में माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया।
धरती पर जब बढ़ रहा, पाप और अज्ञान।
हरने को माधव स्वयं, बने कृष्ण भगवान।।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम युगों-युगों से जन-मानस में रचे बसे हैं। प्रभु श्रीराम की महिमा का गान महादेव शिव से लेकर जन-सामान्य तक एवं तब से आज तक, सभी के मन में एक नई शक्ति, नई ऊर्जा एवं नई चेतना का संचार करता रहा है। आज से लगभग 500 वर्षों पूर्व पूज्य संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना की थी, जिसमें मूलतः अवधी भाषा का समावेश था। इससे पूर्व, रामकथाओं पर देव-भाषा संस्कृत में पठन एवं पाठन होता था। देववाणी में व्याख्यायित उक्त पावन कथा की जन-जन की तत्कालीन वाणी में पुनर्रचना करके संत शिरोमणि श्रीतुलसीदासजी ने रामकथा के संदेशों एवं उपदेशों को जनमानस तक पहुँचाने का अलौकिक कार्य किया था।
श्रीरामचरितमानस से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ और तुलसीदासजी के इस अमर कृत्य ने मुझे उसी शैली में किन्तु वर्तमान में प्रचलित सरल, सरस एवं सुबोध हिन्दी शब्दों में राम-कथा को सरल विरचित ‘रामायण’ के रुप में रचना करने हेतु प्रेरित किया। यह निर्विवादित सत्य है कि हिन्दी भाषा आज हमारी सांस्कृतिक सीमाओं के एक बहुत बडे़ भू-भाग में सहज रुप से बोली एवं पढ़ी जाती है।
विभिन्न रामकथाओं में वर्णित प्रसंगों, प्रचलित मान्यताओं आदि को भी मैंने उक्त पावन ग्रन्थ में इस प्रकार स्थान दिया है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी यह कथा अधिकतम प्रासंगिक एवं प्रेरणादायी हो सके। उक्त ग्रन्थ की रचना करते समय मैंने सभी आयु वर्ग के पाठकांे की रुचि का ध्यान इस प्रकार रखने का प्रयास किया था कि रामकथा में वर्णित उपदेशों, संदेशों एवं प्रभु श्रीराम के मनुष्य रुप में संस्थापित आदर्शों को अधिक से अधिक लोग अपने जीवन में उतार सकें एवं आध्यात्मिक लाभ ले सके।
सरल विरचित ‘रामायण’ अथवा ‘सरलरामायण’ की रचना मैंने लगभग 9 वर्ष पूर्व की थी। तब से आज तक भारत वर्ष के कोने कोने तक ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व के अनेक भागों में यह अपनी पहुँच बना चुकी है।
सरल रामायण की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरलता एवं सुगमता के कारण बढ़ती लोकप्रियता से और दिनों दिन बढ़ते रामभक्तों के आशीर्वाद ने मुझमें एक नई प्रेरणा एवं ऊर्जा प्रदान की। भगवान श्रीकृष्ण के आशीर्वाद और उनके द्वारा मेरे मस्तिष्क में प्रेषित शब्द प्रवाह का ही परिणाम है कि मैं लोकप्रिय दोहे चौपाई की शैली में ही भगवान श्रीकृष्ण की जीवन यात्रा पर आधारित यह पावन ग्रन्थ ”श्रीकृष्णम्” आज भगवान श्रीकृष्ण के श्री चरणों में समर्पित कर रहा हूँ। संभवतः भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित किसी भी भाषा में ”श्रीकृष्णम्” अपने प्रकार की प्रथम काव्य रचना है।
मैं, कोई संत नहीं होकर के एक सामान्य सांसारिक व्यक्ति हूँ और इस रचना के माध्यम से जन-सामान्य को संदेश देना चाहता हूँ कि भगवान की प्रेरणादायी कथाओं के पठन, पाठन, लेखन, श्रवण आदि पर सभी का अधिकार है। मेरा उद्देश्य किसी भी भक्त, पाठक, कथाकार, लेखक आदि की भावनाओं को किसी प्रकार की ठेस पहुँचाना नहीं है, अपितु इन कथाओं का जन सामान्य की भाषा में अधिकतम प्रचार प्रसार करना है।
सभी संभावित त्रुटियों के लिये मेरा कोटि-कोटि क्षमा-याचन।