भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली, महर्षि वेदव्यास द्वारा श्लोक-बद्ध एवम् भगवान् श्रीगणेश द्वारा सर्वप्रथम लिपि-बद्ध गीता एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है।
गीता में सम्पूर्ण वेदों का सार निहित है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण इसके महत्व को युद्ध भूमि में अर्जुन और अर्जुन के माध्यम से समूचे विश्व को समझाते हैैं। गीता सम्पूर्ण मानव जाति के उद्धार के लिये है।
श्रीमद्भगवद्गीता जिसे संक्षेप में ‘गीता’ कहा जाता है, एक बड़ा ही उपदेशात्मक ग्रन्थ है। इसके एक-एक श्लोक एवं एक-एक श्लोक के एक-एक अक्षर को व्याख्यायित करना एवं समझना एक सामान्य व्यक्ति विशेषकर, जो पहली बार गीता का अध्ययन कर रहा है, के वश में सहज नहीं है।।
इसी बात को ध्यान में रखकर मैंने प्रत्येक अध्याय के प्रमुख अंशों को 6 दोहोें रुप में सृजित किया है। इस प्रकार कुल 18 अध्यायों के 108 दोहों के कारण लोकार्पित पुस्तक का शीर्षक/नामकरण ”गीता मनका 108” स्वाभाविक रूप से प्रतीत होता है।
दोहों को क्रमबद्धता का इस प्रकार से ध्यान रखा गया है कि श्रोताओं/पाठकों के मन में विषय की निरन्तरता बनी रहे। प्रत्येक अध्याय के 6 दोहों के बाद एक पद उस अध्याय के सार के रुप में भी लिखा गया है।
इस प्रस्तुति से मेरा उद्देश्य गीता से अधिकाधिक लोगों को जोड़ने का है ताकि वे श्रीमद्भगवद्गीता के सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बना सके मुझे आशा और विश्वास है कि प्रस्तुत पुस्तक इस कार्य में बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी एवं इसके पाठक/श्रोता सम्पूर्ण गीता को पढ़ने, समझने एवं अपने जीवन में उतारने को आतुर होंगे।
उपरोक्त सभी बाध्यताओं के चलते यदि किसी अध्याय का कोई अंश, जो पाठकों की दृष्टि में अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो तथा सम्मिलित होने से रह गया हो, उसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।